जबलपुर। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि लोक अदालत द्वारा पारित अवार्ड या डिक्री को केवल हाई कोर्ट के रिट क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद 226/227) के तहत ही चुनौती दी जा सकती है, न कि निष्पादन कार्यवाही या सामान्य सिविल मुकदमों के माध्यम से। कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिन्होंने जबलपुर की संपत्ति विवाद से जुड़ी एक लोक अदालत डिक्री को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर विचार करने से मना कर दिया था। हाई कोर्ट ने कहा था कि याचिकाकर्ता को निष्पादन कोर्ट में ही आपत्तियां दर्ज करानी चाहिए, जहां पहले से ही इस संबंध में कार्यवाही चल रही है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने कहा कि हाई कोर्ट ने गलती की। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि निष्पादन कोर्ट को लोक अदालत के अवार्ड को रद्द करने या उसकी वैधता पर सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं है। बेदखली से बचने के लिए निष्पादन कोर्ट में दायर की गई आपत्तियों को "वैकल्पिक कानूनी उपचार" नहीं माना जा सकता है। यह मामला दिलीप मेहता बनाम राकेश गुप्ता और अन्य से संबंधित था। अपीलकर्ता ने लोक अदालत के एक समझौता डिक्री को चुनौती दी थी, जिसे कथित तौर पर धोखाधड़ी से और उसकी जानकारी के बिना प्राप्त किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पहले की स्थिति को दोहराते हुए कहा कि संवैधानिक अदालतों के रिट अधिकार क्षेत्र के अलावा, लोक अदालत के अवार्ड को चुनौती देने का कोई कानूनी रूप से मान्य तरीका नहीं है। कोर्ट ने अब इस मामले को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के पास गुण-दोष के आधार पर नए सिरे से और शीघ्र विचार के लिए वापस भेज दिया है। साथ ही, कोर्ट ने अपीलकर्ता को चार सप्ताह में निष्पादन-आपत्तियां वापस लेने का निर्देश दिया और फैसला आने तक संपत्ति से बेदखली पर रोक लगा दी।
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के आदेशों को उच्चतम न्यायालय ने रद्द किया,जबलपुर से जुड़े संपत्ति विवाद पर सुनवाई
